अपने - अपने गोत्र की कुलदेवी के बारे में जानकारी
अर्बुदादेवी / अधर माता
गोत्र - 1 परमार, 2 पंवार, 3 काग, 4 भायल, 5 हाम्बड़, 6 सिन्दडा
अर्बुदादेवी का मन्दिर राजस्थान के सिरोही जिले में
आबू पर्वत में स्थित है ।
अर्बुदादेवी का प्रसिद्ध मन्दिर राजस्थान के सिरोही जिले में आबू पर्वत में स्थित है । प्राचीन शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों में आबू पर्वत को अर्बुदगिरी अथवा अर्बुदांचल कहा गया हैं । अर्बुदादेवी आबू की अधिष्ठात्री देवी हैं । आबू पर्वत शाक्त धर्मका प्रमुख केन्द्र और अर्बुदेश्वरी का निवास माना जाता था । वहाँ नरवी तालाब से अचलेश्वर की तरफ जाते हुए अर्बुदादेवी का मन्दिर आता हैं । सफेद संगमरमर से बना यह छोटा सा मन्दिर एक ऊँची और विशाल पहाड़ी के बीचोंबीच में स्थित है और बहुत भव्य और आकर्षक लगता है।
यह प्राचीन मन्दिर लगभग 4250 फीट की ऊंचाई पर आबू पर्वत की आवासीय बस्ती से ऊपर की और स्थित है । लगभग 450 सीढ़ियां चढ़ने पर मन्दिर में पहुँचते हैं । इस मन्दिर में देवी अम्बिका की प्राचीन और प्रसिद्ध मूर्ति है जो अर्बुदा देवी के नाम से विख्यात है । पर्वतांचल के मध्य में प्राकृतिक रूप से निर्मित एक चट्टान पर एक गुफा में विशाल शिला के नीचे अर्बुदा देवी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है जो ऐसा प्रतीत होता है मानो बिना किसी सहारे या आधार के हवा में अधर खड़ी हो । भूमि को स्पर्श करे बिना अधर खड़ी दिखलाई पड़ने के कारण अर्बुदादेवी को अधर देवी भी कहा जाता है । आबू पर्वत और नगर की प्रतिरक्षक मानी जाने वाली अधर देवी की उक्त प्रतिमा कृष्ण वर्ण की है जिसका ललाट चांदी से चमकीला है तथा वे मस्तक पर स्वर्ण मुकुट धारण किये हुए हैं । अर्बुदा देवी के निज मन्दिर में प्रवेश के लिए श्रद्धालुओं को गुफा के संकरे मार्ग में होकर बैठकर जाना पड़ता है । मन्दिर की गुफा के प्रवेश द्वार के समीप एक शिव मन्दिर भी बना है ।
यहाँ चैत्र पूर्णिमा तथा विजयादशमी के अवसरों पर धार्मिक मेलों का आयोजन होता हैं जिसमें देश विदेश के अनेक लोग भाग लेने के लिए आते हैं. माँ के दरबार में हर समय माता की ज्योत प्रज्जवलित रहती है जो भक्तों में एक नयी ऊर्जा शक्ति का संचार करती है जिससे भक्तों में धार्मिक अनुभूति जागृत होती है तथा जीवन की कठिनाइयों से पार पाने की क्षमता आती है. यहां आने वाला भक्त जीवन के इन सबसे सुखद पलों को कभी भी नहीं भूल पाता और उसके मन में इस स्थान की सुखद अनुभूति हमेशा के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है.
आशापुरा माता का मन्दिर राजस्थान में पाली जिले के नाडोल गांव में स्थित है।
मेवाड़ राजकुल की कुलदेवी बायणमाता
यह तो सर्वविदित है कि मेवाड़ के राजकुल एवं इस कुल से पृथक हुई सभी शाखाओं की कुलदेवी बायण माता है अतः मेवाड़ में इसकी प्रतिष्ठा एवं महत्त्व स्वाभाविक है ।
राजकुल की कुलदेवी बायणमाता सिद्धपुर के नागर ब्राह्मण विजयादित्य के वंशजों के पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रही है । जब-जब मेवाड़ की राजधानी कुछ समय के लिए स्थानान्तरित हुई वहीं यह परिवार कुलदेवी के साथ महाराणा की सेवा में उपस्थित रहा । नागदा, आहाड़, चित्तौड़ एवं उदयपुर इनमे मुख्य है ।
चैती एवं आसोजी नवरात्री में भट्ट जी के यहाँ से कुलदेवी को महलों में ले जाया जाता है । उस वक्त लवाजमें में ढ़ोल, म्यानों बिछात अबोगत (नई) जवान 10, हिन्दू हलालदार 4, छड़ीदार 1, चपरासी 1 रहता है ।
महलों में अमर महल (रंगभवन का भण्डार) की चौपड में जिसका आँगन मिट्टी का लिपा हुआ कच्चा है, स्थापना की जाती है । इस अवधि में कालिका, गणेश, भैरव भी साथ विराजते हैं । जवारों के बिच बायण माता के रजत विग्रह को रखा जाता है । इनमें सभी प्रकार के पारम्परिक लवाजमें में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र शस्त्र एवं मुख्य चिन्न यहाँ रखे जाते है । अखण्ड ज्योति जलती है । विधि विधान से पूजा पाठ होते हैं । बाहर के दालान में पण्डित दुर्गासप्तशती के पाठ करते हैं । महाराणा इस अवधि में तीन-चार बार दर्शन हेतु पधारते थे । अष्टमी के दिन दशांश हवन संपन्न होता है । पूर्व में इसी दिन चौक में बकरे की बलि (कालिका के लिए) एवं बाहर जनानी ड्यौढ़ी के दरवाजे में महिष की बलि दी जाती थी , जो अब बंद हो गयी है ,उसके बदले में श्रीफल से बलि कार्य संपन्न किया जाता है । अष्टमी के दिन हवन की पूर्णाहुति के समय महाराणा उपस्थित रहते थे । तीन तोपों की सलामी दी जाती थी । नवमी के दिन उसी लवाजमें के साथ बायण माता भट्ट परिवार के निवास स्थान पर पहुँचा दी जाती थी ।
बायण माता के इतिहास की जानकारी लेने से पूर्व यह प्रासंगिक होगा कि कुलदेवी का नाम बायणमाता क्यों पड़ा ? जैसे राठौड़ों की कुलदेवी नागणेचा नागाणा गांव में स्थापित होने के कारण जानी जाती है । वैसे बायणमाता का किसी स्थान विशेष से सम्बन्ध जोड़ना प्रमाणित नहीं है, किन्तु यह सत्य है कि इस राजकुल की कर्मस्थाली गुर्जर देश (गुजरात) रही है ।
गुजरात में होकर नर्मदा नदी समुद्र में मिलती है । यह नदी शिवलिंग की प्राप्ति का मुख्य स्थान है । इस पवित्र नदी से प्राप्त लिंग बाणलिंग (नर्मदेश्वर) कहलाते है । संभव है बाणेश्वर से शक्ति स्वरूपा बायणमाता का नामकरण हुआ हो । यह स्मरणीय है कि महाराणा भीमसिंह ने इन्हीं कुलदेवी बायणमाता के प्रेरणा से अपने स्वपूजित शिवलिंग को बाणनाथजी का नाम दिया हो ।
बाणलिंग और बाणमाता नाम में महान् सार्थकता समाविष्ट है । सामान्यतया शास्त्रों में शिवलिंग को अर्पित पत्र, पुष्प, फल, नैवैद्य का निर्माल्य अग्राह्य है, अर्थात उन्हें चण्ड (शिव का गण ) को अर्पित कर देना चाहिए या कुएं जलाशय में समर्पित कर देना चाहिए । शिवपुराण में शिवार्पित वस्तुओं का जो चंडेश्वर भाग है ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध है । बाणमाता कब और कैसे इस राजकुल की कुलदेवी स्थापित हुई और नागदा ब्राह्मण परिवार को इसकी सेवा का अधिकार हुआ, इसके लिए सम्बन्धित सूत्रों से प्राप्त जानकारी का अध्ययन अपेक्षित है ।
अमरकाव्यम् ग्रंथ के अनुसार राजा शिलादित्य की पत्नी का नाम कमलावती था । शत्रुओं द्वारा राज्य और नगर घेर लिए जाने पर कमलावती और पुत्रवधु मेवाड़ में चली आई । शिलादित्य की पुत्रवधु उस समय गर्भवती थी, उसने पुत्र को जन्म दिया और सूर्य पूजा के बाद अपने नवजात पुत्र को लखमावती नामक ब्राह्मणी को सौंप कर वह सती हो गयी । लखमावती के पति का नाम विजयादित्य था । उसने शिलादित्य के पौत्र का नाम केशवादित्य रखा । विजयादित्य का गौत्र वैजवापाय उसके पालित क्षत्रिय बालक का ही गौत्र कहलाया । इस ब्राह्मण परिवार ने अपने पुत्र की भाँति केशवादित्य का पालन किया, इसलिए वह ब्राह्मण और क्षत्रिय कर्मों से उक्त था । चित्तौड़, के समीप आनन्दीपुर (वर्तमान अरणोद) में केशवादित्य ने निवास किया एवं अपना राज्य स्थापित किया ।
केशवादित्य के पुत्र नागादित्य ने नागद्रहा नागदा नगर बसाया । रावल राणाजी री बात में इसकी राजधानी तिलपुर पाटन कही गई है । शत्रु के दबाव से बालक केशवादित्य को कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में रख दिया, उनकी कृपा से बालक और रक्षक नागदा सुरक्षित पहुंच गये । गुजरात का राजा समरसी सोलंकी ने केशवादित्य को अपना वारिस बनाना चाहा, परन्तु यह संभव नहीं हुआ । विजयादित्य लखमावती वडनगरा नागर ब्राह्मण के साथ मेवाड़ की तरफ आ गए । नागदा मुख्य केन्द्र बन गया ।एतिहासिक प्रमाणों के अभाव में उपरोक्त कथनों की पुष्टि नहीं होती । राजा केशवादित्य एतिहासिक सिद्ध नहीं होते । डॉ. ओझा ने गुहिल से लेकर बापा तक की वंशावली में आठ राजाओं के नाम लिए है , इनमे केशवादित्य का नाम नहीं है । शिलादित्य का समय विक्रम संवत 703 शिलालेखों से प्रमाणित है । मेवाड़ राजकुल का गौत्र, प्रवर, कुलदेवी का नामकरण इसी समय के आस पास होना चाहिए ।
विजयादित्य एवं लखमावती के परिवार को 1300 वर्ष की मान्यता, अनेक गावों की जागीर एवं कुलगुरु का सम्मान संदिग्ध नहीं हो सकता ।
बाणमाता विभिन्न स्थानों पर राजधानी परिवर्तन के साथ विचरण करती रही है । चित्तौड़ दुर्ग में बाणमाता का मन्दिर (अन्नपूर्णा के समय ) है । इसी प्रकार तलवाड़ा में भी बाणमाता का मन्दिर है । इसके आलावा भी कुछ अन्य स्थानों पर प्रतीकात्मक मूर्तियां एवं मन्दिर है , परन्तु मेवाड़ का राजकुल इसी नागदा परिवार द्वारा सेवी विगरह को बायण जी के स्वरूप को सदीप से अंगीकृत किये हुए है । यह क्रम अखण्ड रूप से जारी है ।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ का गुहिल राजवंश अपने शौर्य पराक्रम कर्तव्यनिष्ठा, और धर्म पर अटल रहने वाले 36 राजवंशों में से एक है । गुहिल के वंश क्रम में भोज, महेंद्रनाग, शीलादित्य, अपराजित महेंद्र द्वितीय एवं कालाभोज हुआ । कालाभोज बापा रावल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह माँ बायण का अन्नयः भक्त था ।
बायणमाता गुहिल राजवंश ही नहीं इस राजवंश से निकली दूसरी शाखा सिसोदियां और उनकी उपशाखाओं की भी कुलदेवी रही है । दलपति विजय कृत खुम्माण रसों में माँ बायण की बापा रावल पर विशेष कृपा का उल्लेख मिलता है
भाव सहित अर्चना करने पर भगवती बायणमाता भय से मुक्ति दिलाती है । वह सिंह की पीठ पर सवार होकर विचरण करती है । माता बायण मुझ पर दया करती है । कालिकादेवी काली होने से प्रकाशरहित होती है, पर उसके शरीर से ज्योति (प्रकाश) झिल मिलता रहता है । वह अखण्ड (शाश्वत) मित्र है, अग्नि रूप है,शत्रुओं का सर्वनाश करती है । हंसती खेलती, किलकारी करती हुई गहलोत वंश की वृद्धि (उन्नति) करती है । प्रसन्न होने पर यह माता सदा सभी कार्यों को सानन्द सम्पन्न करती है ।
भाले, तलवार, धनुष बाण, तरकस प्रदान किये । कमठ (कछुवे की पीठ से बनी) ढाल कमा और कटार जो शत्रु समूह को काटती है, बापा को वीर योद्धा जान कर देवी ने अपने हाथों से धारण कराया । उसकी बाह पकड़कर शक्ति दान करते हुए माता ने उसका मोतियों से वर्धापन किया । अर्थात उसको राजा बनाया अपने हाथ से तिलक लगाकर माँ बायण ने अपने पुत्र को बड़ा (महान) बनाया और शक्ति के द्वारा दिया हुआ भूमि का भार सामंत बापा ने भुजा पर धारण किया ।
बाणमाता के मन्दिर केलवाड़ा अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँची चोटी पर किया गया था । मन्दिर का क्षेत्रफल काफी था तथा इसके चारों तरफ सुदृढ़ परकोटा था जहां सेनाएं रहा करती थी । 1443 ई. में जब सुलतान महमूदशाह खिलजी (मालवा) ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तब वह सारंगपुर होता हुआ केलवाड़ा की ओर बढ़ा वहां पहुंचकर उसने कई धार्मिक स्थानों को नष्ट भ्रष्ट किया । सुलतान की सेना का विरोध करने वाला दीप सिंह अपने कई वीर साथियों सहित काम आया अनन्तर मुस्लिम सेना ने बाणमाता के मन्दिर को लुटा, मन्दिर में लकड़ियां भरकर उसमे आग लगा दी और अग्नि से तप्त मूर्तियों पर ठण्डा पानी डालकर उसे नष्ट किया गया । कालान्तर में वर्तमान मन्दिर का पुनः निर्माण कराया गया तथा बायणमाता की नवीन मूर्ति गुजरात से लाकर स्थापित की गयी ।
सिसोद वंशावली एवं टोकरा बड़वा की पोथी में यह उल्लेख है कि गढ़ मंडली राणा कुंवर लक्ष्मणसिंह द्वारका की यात्रा कर गये मार्ग में पाटण (राजधानी) में ठहरे वहाँ कच्छ के एक विशाल सींगों वाले भैंसे का बलिदान किया । इस सम्बन्ध में यह छन्द द्रष्टव्य है ।
इससे प्रसन्न होकर भटियाणी रानी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया । सोलंकियों की कुलदेवी बायण की पेटी एवं गहनों की पेटी उन्हें सौंप दी लक्ष्मणसिंह ने बायणजी का मन्दिर बनवाकर केलवाड़ा में स्थापना की ।
उपरोक्त कथन में तिथि क्रम में त्रुटियां हैं जिन्हे इतिहास की कसौटी पर सिद्ध करना संभव नहीं है, कुलदेवी की इसी प्रतिमा एवं मन्दिर को मेवाड़ के राजकुल से विशेष महत्त्व दिया हो इसके प्रमाण नहीं मिलते, सम्भवत बाणमाता को कुलदेवी मानने के बाद इस वंश के शाखा प्रमुखों में मन्दिर बनवाये हो जिनमे से केलवाड़ा का मन्दिर भी एक है ।
भट्ट परिवार बायणजी के पुश्तैनी पुजारी
बाणमाता के प्रसंग में यह लिखा जा चुका है कि राज केशवादित्य का लालन-पालन बडनगरा भट्ट ब्राह्मण विजयादित्य एवं लखमावती ने किया था । इसी परिवार ने गौत्र, प्रवर, शाखा यज्ञोपवित देकर केशवादित्य को ब्राह्मण संस्कार प्रदान किया जो आज तक उसी रूप में विध्यमान है । गुर्जर देश से आने के बाद दीर्घ अवधि तक यह परिवार नागदा में रहा ।
कालभोज बापा नागदा में नरेश्वरजी भट्ट की गायें चराते थे जिनमे से एक भगवान एकलिंग और हरितराशि को दुग्ध प्रदान करती थी । इस प्रसंग में बापा पर दुग्ध चोरी का मिथ्या, आरोप लगा था । उपरोक्त तथ्यों को एतिहासिक स्तर पर प्रमाणित करने के साक्ष्य मौजूद नहीं है, परन्तु जिस काल से साक्ष्य मिलते हैं और जो जागीर एवं सम्मान इस परिवार को मिला, वह पूर्ववर्ती सेवाओं को ध्यान में रख कर ही दिया गया प्रतीत होता है । यह अवश्य आश्चर्यजनक है कि महाराणा कुम्भा जो हर दृष्टि से मेवाड़ का यशस्वी शासक था, उसके काल का भी इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।
सम्भवतः विजयादित्य के बाद गोपाल भट्ट इस परिवार में प्रभावशाली व्यक्ति हुआ, जो महाराणा रायमल का समकालीन था । रायमल ने गद्दी पर बैठते ही संवत् 1530 में 12 गांव का पट्टा चित्तौड़ क्षेत्र में प्रदान किया । महाराणा रायमल ने गोपाल भट्ट से गुरु दीक्षा ली एवं संवत् 1543 में गांव बोदियाणा (गढ़ की तलहटी) ताम्रपत्र प्रदान किया ।
इस प्रकार गोपाल भट्ट की दो पुत्रियों को पीपलवास (नाथद्वारा) और पहाड़ा (गिर्वा) गांव प्रदान किये । इसी प्रकार इसी महाराणा ने प्रहाणा व थुर गांव भी दिये, जिनका उल्लेख एकलिंग मन्दिर के दक्षिण द्वारा प्रशस्ति में है । स्पष्ट है महाराणा रायमल इस परिवार पर अत्यधिक प्रसन्न कृपालु थे । इस कृपा का कारण उस काल में गोपाल भट्ट द्वारा की गई सेवायें थी अथवा पूर्व काल में की गयी सेवाओं को समग्र रूप में पुरस्कृत करना था, नहीं कहा जा सकता ।इसके बाद महाराणा जगत सिंह प्रथम एवं संग्राम सिंह द्वितीय के काल में दिए गये भूमि दान के प्रमाण है ।
कालाजी गोराजी के समीप गणेश की प्रभावी प्रतिमा सुन्दर विनायक जी इस परिवाद द्वारा स्थापित विग्रह है । इसकी विशेषता यह कि विग्रह की सूंड परम्परा से हटकर दाहिनी ओर है । इस श्री विग्रह के हृदय पर लक्ष्मी का चित्र है । इस विग्रह का कई महाराणाओं को विशेष इष्ट था, जिनमे महाराणा स्वरूपसिंह मुख्य थे । गणेश चतुर्थी को सामान्यतया सभी महाराणा यहां दर्शनार्थ पधारते थे ।
वर्तमान में यह परिवार राजमहल के निचे भट्टियानी चोहट्टा में निवास करता है । वहीं बाणमाता की पूजा अर्चना भी नियमित होती है । पूर्व में यह कार्य जागीर पेटे होता था । वर्तमान में माताजी की सेवा पूजा की व्यवस्था महलों की ओर से होती है । वस्तुतः मेवाड़ राजकुल के साथ इस भट्ट परिवार का सान्निध्य एवं सम्बन्ध मैत्रा वरुण जैसा रहा है । जो अत्यन्त वन्दनीय है ।
क्षेमाचर्या क्षेमंकारी देवी जिसे स्थानीय भाषाओं में क्षेमज, खीमज, खींवज आदि नामों से भी पुकारा व जाना जाता है। इस देवी का प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर राजस्थान के भीनमाल कस्बे से लगभग तीन किलोमीटर भीनमाल खारा मार्ग पर स्थित एक डेढ़ सौ फुट ऊँची पहाड़ी की शीर्ष छोटी पर बना हुआ है। मंदिर तक पहुँचने हेतु पक्की सीढियाँ बनी हुई है। भीनमाल की इस देवी को आदि देवी के नाम से भी जाना जाता है। भीनमाल के अतिरिक्त भी इस देवी के कई स्थानों पर प्राचीन मंदिर बने है जिनमें नागौर जिले में डीडवाना से 33 किलोमीटर दूर कठौती गांव में, कोटा बूंदी रेल्वे स्टेशन के नजदीक इंद्रगढ़ में व सिरोही जालोर सीमा पर बसंतपुर नामक जगह पर जोधपुर के पास ओसियां आदि प्रसिद्ध है। सोलंकी राजपूत राजवंश इस देवी की अपनी कुलदेवी के रूप में उपासना करता है|
देवी उपासना करने वाले भक्तों को दृढविश्वास है कि खीमज माता की उपासना करने से माता जल, अग्नि, जंगली जानवरों, शत्रु, भूत-प्रेत आदि से रक्षा करती है और इन कारणों से होने वाले भय का निवारण करती है। इसी तरह के शुभ फल देने के चलते भक्तगण देवी माँ को शंभुकरी भी कहते है। दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक अनुसार-“पन्थानाम सुपथारू रक्षेन्मार्ग श्रेमकरी” अर्थात् मार्गों की रक्षा कर पथ को सुपथ बनाने वाली देवी क्षेमकरी देवी दुर्गा का ही अवतार है।
जनश्रुतियों के अनुसार किसी समय उस क्षेत्र में उत्तमौजा नामक एक दैत्य रहता था। जो रात्री के समय बड़ा आतंक मचाता था। राहगीरों को लूटने, मारने के साथ ही वह स्थानीय निवासियों के पशुओं को मार डालता, जलाशयों में मरे हुए मवेशी डालकर पानी दूषित कर देता, पेड़ पौधों को उखाड़ फैंकता, उसके आतंक से क्षेत्रवासी आतंकित थे। उससे मुक्ति पाने हेतु क्षेत्र के निवासी ब्राह्मणों के साथ ऋषि गौतम के आश्रम में सहायता हेतु पहुंचे और उस दैत्य के आतंक से बचाने हेतु ऋषि गौतम से याचना की। ऋषि ने उनकी याचना, प्रार्थना पर सावित्री मंत्र से अग्नि प्रज्ज्वलित की, जिसमें से देवी क्षेमकरी प्रकट हुई। ऋषि गौतम की प्रार्थना पर देवी ने क्षेत्रवासियों को उस दैत्य के आतंक से मुक्ति दिलाने हेतु पहाड़ को उखाड़कर उस दैत्य उत्तमौजा के ऊपर रख दिया। कहा जाता है कि उस दैत्य को वरदान मिला हुआ था वह कि किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा। अतः देवी ने उसे पहाड़ के नीचे दबा दिया। लेकिन क्षेत्रवासी इतने से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें दैत्य की पहाड़ के नीचे से निकल आने आशंका थी, सो क्षेत्रवासियों ने देवी से प्रार्थना की कि वह उस पर्वत पर बैठ जाये जहाँ वर्तमान में देवी का मंदिर बना हुआ है तथा उस पहाड़ी के नीचे नीचे दैत्य दबा हुआ है।
देवी की प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर वर्तमान में जो प्रतिमा लगी है वह 1935 में स्थापित की गई है, जो चार भुजाओं से युक्त है। इन भुजाओं में अमर ज्योति, चक्र, त्रिशूल तथा खांडा धारण किया हुआ है। मंदिर के सामने व पीछे विश्राम शाला बनी हुई है। मंदिर में नगाड़े रखे होने के साथ भारी घंटा लगा है। मंदिर का प्रवेश द्वार मध्यकालीन वास्तुकला से सुसज्जित भव्य व सुन्दर दिखाई देता है। मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा के दार्इं और काला भैरव व गणेश जी तथा बाईं तरफ गोरा भैरूं और अम्बाजी की प्रतिमाएं स्थापित है। आसन पीठ के बीच में सूर्य भगवान विराजित है।
नागौर जिले के डीडवाना से 33 कि.मी. की दूरी पर कठौती गॉव में माता खीमज का एक मंदिर और बना है। यह मंदिर भी एक ऊँचे टीले पर निर्मित है ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में यहा मंदिर था जो कालांतर में भूमिगत हो गया। वर्तमान मंदिर में माता की मूर्ति के स्तम्भ’ के रूप से मालुम चलता है कि यह मंदिर सन् 935 वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था। मंदिर में स्तंभ उत्तकीर्ण माता की मूर्ति चतुर्भुज है। दाहिने हाथ में त्रिशूल एवं खड़ग है, तथा बायें हाथ में कमल एवं मुग्दर है, मूर्ति के पीछे पंचमुखी सर्प का छत्र है तथा त्रिशूल है।
क्षेंमकरी माता का एक मंदिर इंद्रगढ (कोटा-बूंदी ) स्टेशन से 5 मील की दूरी पर भी बना है। यहां पर माता का विशाल मेला लगता है। क्षेंमकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाडी पर है, बसंतपुर एक प्राचीन स्थान है, जिसका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। सिरोही, जालोर और मेवाड की सीमा पर स्थित यह कस्बा पर्वत मालाओ से आवृत्त है। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 682 में हुआ था। इस मंदिर का जीर्णोद्वार सिरोही के देवड़ा शासकों द्वारा करवाया गया था। एक मंदिर भीलवाड़ा जिला के राजसमंद में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात के रूपनगर में भी माता का मंदिर होने की जानकारी मिली है।
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संक्षिप्त इतिहास से में आपको रूबरू करवा रहा हूँ हालाँकि यह इतिहास वेद् वर्णित हैं फिर भी अगर किसी भी प्रकार की त्रुटि हो तो में क्षमा प्राथी हूँ।
नागणेची/चक्रेश्वरी/राठेश्वरी/नागणेचिया माता
गोत्र - 7 राठोड़, 8 बरफा
नागणेचिया माता का मन्दिर राजस्थान में जोधपुर जिले के नागाणा गांव में स्थित है।
राजस्थान के राठौड़ राजवंश
की कुलदेवी चक्रेश्वरी, राठेश्वरी, नागणेची
या नागणेचिया के नाम से प्रसिद्ध है । नागणेचिया माता का मन्दिर राजस्थान में
जोधपुर जिले के नागाणा गांव में स्थित है। यह मन्दिर जोधपुर से 96 किमी.
की दूरी पर है। प्राचीन ख्यातों और इतिहास
ग्रंथों के अनुसार मारवाड़ के राठौड़ राज्य के संस्थापक राव सिन्हा के पौत्र राव
धूहड़ (विक्रम संवत 1349-1366) ने सर्वप्रथम इस देवी की मूर्ति स्थापित कर मंदिर
बनवाया ।
राजा राव धूहड़ दक्षिण के
कोंकण (कर्नाटक) में जाकर अपनी कुलदेवी चक्रेश्वरी की मूर्ति लाये और उसे पचपदरा
से करीब 7 मील पर नागाणा गाँव में
स्थापित की, जिससे वह देवी नागणेची
नाम से प्रसिद्ध हुई। नमक के लिए विख्यात पचपदरा बाड़मेर जोधपुर सड़क का मध्यवर्ती
स्थान है जिसके पास (7 कि.मी.) नागाणा
में देवी मंदिर स्थित है।
अष्टादश भुजाओं वाली
नागणेची महिषमर्दिनी का स्वरुप है। बाज या चील उनका प्रतीक चिह्न है,जो मारवाड़ (जोधपुर),बीकानेर तथा किशनगढ़ रियासत के झंडों पर देखा जा सकता है।
नागणेची देवी जोधपुर राज्य की कुलदेवी थी। चूंकि इस देवी का निवास स्थान नीम के
वृक्ष के नीचे माना जाता था अतः जोधपुर में नीम के वृक्ष का आदर किया जाता था और
उसकी लकड़ी का प्रयोग नहीं किया जाता था।
एक बार बचपन में राव धुहड
जी ननिहाल गए। वहां उन्होने अपने मामा का
बहुत बडा पेट देखा । बेडोल पेट देखकर वे अपनी हँसी रोक नही पाएं और जोर जोर से
हँसने लगे। इस पर उनके मामा को गुस्सा आ
गया और उन्होने राव धुहडजी से कहा की सुन भानजे ! तुम तो मेरा बडा पेट देखकर हँस
रहे हो, किन्तु तुम्हारे परिवार
को बिना कुलदेवी देखकर सारी दुनिया हंसती है। तुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की
मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सके, तभी तो तुम्हारा
कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा है।
मामा के ये कड़वे परंतु
सच्चे बोल राव धुहडजी के ह्रदय में चुभ गये। उन्होने उसी समय मन ही मन निश्चय किया
कि मैं अपनी कूलदेवी की मूर्ति अवश्य लाऊंगा। वे अपने पिताजी राव आस्थानजी के पास
खेड लोट आए। किन्तु बालक धुहडजी को यह पता
नही था कि कुलदेवी कौन है ? उनकी मूर्ति कहा
है ?और वह कैसे लाई जा सकती
है ? उन्होनें तपस्या कर देवी
को प्रसन्न करने का निश्चय किया।
एक दिन बालक राव धुहडजी
चुपचाप घर से निकल गये और जंगल मे जा पहुंचे । वहाँ अन्नजल त्याग कर तपस्या करने
लगे। बालहठ के कारण आखिर देवी का ह्रदय पसीजा । देवी प्रकट हुई । तब बालक राव
धुहडजी ने देवी को आप बीती बताकर कहा की हे माता ! मेरी कुलदेवी कौन है ।और उनकी
मूर्ति कहाँ है ? वह केसे लाई जा
सकती है ? देवी ने स्नेह पूर्वक
उनसे कहा की सून बालक ! तुम्हारी कुलदेवी का नाम चक्रेश्वरी है ।और उनकी मूर्ति
कन्नौज मे है ।तुम अभी छोटे हो ,बडे होने पर जा
पाओगें। तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी ।
कालांतर में राव आस्थानजी
का स्वर्गवास हुआ । और राव धुहडजी खेड के शासक बनें । तब एक दिन राजपूरोहित पीथडजी
को साथ लेकर राव धूहडजी कन्नौज रवाना हुए। कन्नौज में उन्हें गुरू लुंम्ब ऋषि मिले
। उन्होंने धूहड़जी को माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहा कि यही
तुम्हारी कुलदेवी है । इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।
जब राव धुहडजी ने कुलदेवी
की मूर्ति को विधिवत् साथ लेने का उपक्रम किया तो अचानक कुलदेवी की वाणी गुंजी ठहरो पुत्र !
मैं ऐसे तुम्हारे साथ नही चलूंगी। मैं पंखिनी ( पक्षिनी ) के रूप में
तुम्हारे साथ चलूंगी। तब राव धुहडजी ने कहा हे माँ मुझे विश्वास कैसे होगा कि आप
मेरे साथ चल रही है । तब माँ कुलदेवी ने कहा जब तक तुम्हें पंखिणी के रूप में
तुम्हारे साथ चलती दिखूं तुम यह समझना की तुम्हारी कुलदेवी तुम्हारे साथ है। लेकिन
एक बात का ध्यान रहे , बीच में कही
रूकना मत ।
राव धुहडजी ने कुलदेवी का
आदेश मान कर वैसे ही किया ।राव धुहडजी कन्नौज से रवाना होकर नागाणा ( आत्मरक्षा )
पर्वत के पास पहुंचते पहुंचते थक चुके थे । तब विश्राम के लिए एक नीम के नीचे तनिक
रूके । अत्यधिक थकावट के कारण उन्हें वहा नीदं आ गई । जब आँख खुली तो देखा की
पंखिनी नीम वृक्ष पर बैठी है ।<
राव धुहडजी हडबडाकर उठें
और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक
जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।
तब राव धूहडजी ने कहा की
हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है । कुलदेवी बोली कि कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने
से पहले अपना घोडा
जहाॅ तक संभव हो वहा तक घुमाना यही क्षैत्र अब मेरा ओरण होगा और यहां मै मूर्ति
रूप में प्रकट होऊंगी। परंतु एक बात का
ध्यान रहे, मैं जब प्रकट होऊंगी तब
तुम ग्वालिये से कह देना कि वह गायों को हाक न करे , अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।
कमर तक ठहर गई
प्रतिमाअगले दिन सुबह जल्दी उठकर राव धुहडजी ने माता के कहने के अनुसार अपना घोडा
चारों दिशाओं में दौडाया और वहां के ग्वालिये से कहा की गायों को रोकने के लिए
आवाज मत करना , चुप रहना ,
तुम्हारी गाये जहां भी जाएगी ,मै वहां से लाकर दूंगा । कुछ ही समय बाद अचानक
पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी , बिजलियां चमकने
लगी। इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी । डर के मारे ग्वालिये
की गाय इधर उधर भागने
लगी। तभी स्वभाव वश ग्वालिये के मुह से
गायों को रोकने के लिए हाक की आवाज निकल गई । बस, ग्वालिये के मुह से आवाज निकलनी थी की प्रकट होती होती
प्रतिमा वहीं थम गई ।
केवल कटि तक ही भूमि से
मूर्ति बाहर आ सकी। राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया और उसी अर्ध प्रकट मूर्ति
के लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत्
1362 ई. में मन्दिर का
निर्माण करवाया ,क्योकि चक्रेश्वरी नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी , अतः वह चारों और नागणेची रूप में प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार मारवाड में राठौडों की
कुलदेवी नागणेची कहलाई ।
अठारह भुजायुक्त नागणेची
माता के नागाणा स्थित इस मन्दिर में माघ शुक्ल सप्तमी और भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को
प्रतिवर्ष मेला लगता है। और लापसी, खाजा का भोग लगता
है। सप्त धागों को कुंकुम रंजित कर माता का प्रसाद मानकर सभी राखी बांधते हैं।
श्री नागणेची माता के
मन्दिर जालोर, जोधपुर, बीकानेर आदि के किलों में भी है। यहाँ के राठौड़
राजाओं ने अपनी कुलदेवी के मन्दिर अपने-अपने किलों में बनवाये ताकि प्रतिदिन
भक्ति-भाव से पूजा कर आशीर्वाद प्राप्त कर सके।
बीकानेर में नागणेचीजी का मंदिर शहर से लगभग 2 की.मी.
दक्षिण पूर्व में अवस्थित है। देवी का यह मंदिर एक विशाल और ऊँचे चबूतरे पर बना है, जिसके
भीतर अष्टादश भुजाओं वाली नागणेचीजी की चाँदी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है।
नागणेचीजी की यह प्रतिमा बीकानेर राज्य के संस्थापक राव बीका अन्य राजचिन्हों के साथ अपने पैतृक
राज्य जोधपुर से यहाँ लाये थे। नागणेचीजी
बीकानेर और उाके आस पास के क्षेत्र में भी सर्वत्र वंदित और पूजित हैं। नवरात्र और
दशहरे के अवसर पर अपार जनसमूह देवी के दर्शनार्थ मंदिर में आते हैं।
आशापुरा माता
गोत्र - 9 चौहान, 10 चोयल, 11 देवड़ा, 12 सेपटा, 13 मुलेवा, 14 मोगरेचा, 15 चांवडिया
नाडोल शहर (जिला पाली,राजस्थान) का नगर रक्षक लक्ष्मण हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित गश्त पर था। नगर की परिक्रमा करते करते लक्ष्मण प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली भारमली नदी के तट पर जा पहुंचा। पानी पीने के बाद नदी किनारे बसी चरवाहों की बस्ती पर जैसे लक्ष्मण ने अपनी सतर्क नजर डाली, तब एक झोंपड़ी पर हीरों के चमकते प्रकाश ने आकर्षित किया। वह तुरंत झोंपड़ी के पास पहुंचा और वहां रह रहे चरवाहे को बुला प्रकाशित हीरों का राज पूछा। चरवाह भी प्रकाश देख अचंभित हुआ और झोंपड़ी पर रखा वस्त्र उतारा। वस्त्र में हीरे चिपके देख चरवाह के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, उसे समझ ही नहीं आया कि जिस वस्त्र को उसने झोपड़ी पर डाला था, उस पर तो जौ के दाने चिपके थे।
लक्ष्मण द्वारा पूछने पर चरवाहे ने बताया कि वह पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की गाय चराता है। आज उस महिला ने गाय चराने की मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे। जिसे वह बनिये को दे आया, कुछ इसके चिपक गए, जो हीरे बन गये। लक्ष्मण उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए हीरे बरामद वापस ग्वाले को दे दिये। लक्ष्मण इस चमत्कार से विस्मृत था अतः उसने ग्वाले से कहा- अभी तो तुम जाओ, लेकिन कल सुबह ही मुझे उस कन्दरा का रास्ता बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है।
दुसरे दिन लक्ष्मण जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में गया, कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी। उसने बिना देखे लक्ष्मण को पुकारा- “लक्ष्मण, राव लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ।”
आवाज सुनते ही लक्ष्मण आश्चर्यचकित हो गया और उसका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा। उसे तुरंत आभास हो गया कि यह वृद्ध महिला कोई और नहीं, उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है। और लक्ष्मण सीधा माँ के चरणों में गिरने लगा, तभी आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा? बोलो मेरे लिए क्या लाये हो?
लक्ष्मण को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं लगी और उसने तुरंत साथ आये ग्वाला का सिर काट माँ के चरणों में अर्पित कर दिया।
लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा। लक्ष्मण ने माँ से कहा- माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है, अतः मुझे राव (शासक) बना दो ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर प्रजा का पालन करूँ, मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन कर सकूं और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा करें। वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो गई। जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ सुदी 2 का दिन था। इसके बाद लक्ष्मण नाडोल शहर की सुरक्षा में तन्मयता से लगा रहा।
उस जमाने में नाडोल एक संपन्न शहर था। अतः मेदों की लूटपाट से त्रस्त था। लक्ष्मण के आने के बाद मेदों को तकड़ी चुनौती मिलने लगी। नगरवासी अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन मेदों ने संगठित होकर लक्ष्मण पर हमला किया। भयंकर युद्ध हुआ। मेद भाग गए, लक्ष्मण ने उनका पहाड़ों में पीछा किया और मेदों को सबक सिखाने के साथ ही खुद घायल होकर अर्धविक्षिप्त हो गया। मूर्छा टूटने पर लक्ष्मण ने माँ को याद किया। माँ को याद करते ही लक्ष्मण का शरीर तरोताजा हो गया, सामने माँ खड़ी थी बोली- बेटा ! निराश मत हो, शीघ्र ही मालव देश से असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे। तुम उन पर केसरमिश्रित जल छिड़क देना। घोड़ों का प्राकृतिक रंग बदल जायेगा। उनसे अजेय सेना तैयार करो और अपना राज्य स्थापित करो।
अगले दिन माँ का कहा हुआ सच हुआ। असंख्य घोड़े आये। लक्ष्मण ने केसर मिश्रित जल छिड़का, घोड़ों का रंग बदल गया। लक्ष्मण ने उन घोड़ों की बदौलत सेना संगठित की। इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा इन घोड़ों की संख्या 12000 हजार बताते है तो मुंहता नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या 13000 लिखी है। अपनी नई सेना के बल पर लक्ष्मण ने लुटरे मेदों का सफाया किया। जिससे नाडोल की जनता प्रसन्न हुई और उसका अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण को सिंहासन पर आरूढ कर पुरस्कृत किया।
इस प्रकार लक्ष्मण माँ शाकम्भरी के आशीर्वाद और अपने पुरुषार्थ के बल पर नाडोल का शासक बना। मेदों के साथ घायल अवस्था में लक्ष्मण ने जहाँ पानी पिया और माँ के दुबारा दर्शन किये जहाँ माँ शाकम्भरी ने उसकी सम्पूर्ण आशाएं पूर्ण की वहां राव लक्ष्मण ने अपनी कुलदेवी माँ शाकम्भरी को “आशापुरा माँ” के नाम से अभिहित कर मंदिर की स्थापना की तथा उस कच्ची बावड़ी जिसका पानी पिया था को पक्का बनवाया। यह बावड़ी आज भी अपने निर्माता वीरवर राव लक्ष्मण की याद को जीवंत बनाये हुए है। आज भी नाडोल में आशापुरा माँ का मंदिर लक्ष्मण के चौहान वंश के साथ कई जातियों व वंशों के कुलदेवी के मंदिर के रूप में ख्याति प्राप्त कर उस घटना की याद दिलाता है। आशापुरा माँ को कई लोग आज आशापूर्णा माँ भी कहते है और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है।
कौन था लक्ष्मण ?
लक्ष्मण शाकम्भर (वर्तमान नमक के लिए प्रसिद्ध सांभर, राजस्थान) के चौहान राजा वाक्प्तिराज का छोटा पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद लक्ष्मण के बड़े भाई को सांभर की गद्दी और लक्ष्मण को छोटी सी जागीर मिली थी। पर पराक्रमी, पुरुषार्थ पर भरोसा रखने वाले लक्ष्मण की लालसा एक छोटी सी जागीर कैसे पूरी कर सकती थी? अतः लक्ष्मण ने पुरुषार्थ के बल पर राज्य स्थापित करने की लालसा मन में ले जागीर का त्याग कर सांभर छोड़ दिया। उस वक्त लक्ष्मण अपनी पत्नी व एक सेवक के साथ सांभर छोड़ पुष्कर पहुंचा और पुष्कर में स्नान आदि कर पाली की और चल दिया। उबड़ खाबड़ पहाड़ियों को पार करते हुए थकावट व रात्री के चलते लक्ष्मण नाडोल के पास नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ आराम करने के लिए रुका। थकावट के कारण तीनों वहीं गहरी नींद में सो गये। सुबह मंदिर के पुजारी ने उन्हें सोये देखा। पुजारी सोते हुए लक्ष्मण के चेहरे के तेज से समझ गया कि यह किसी राजपरिवार का सदस्य है। अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे उठाया। परिचय व उधर आने प्रयोजन जानकार पुजारी ने लक्ष्मण से आग्रह किया कि वो नाडोल शहर की सुरक्षा व्यवस्था संभाले। पुजारी ने नगर के महामात्य संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का मुख्य नगर रक्षक नियुक्त करवा दिया। जहाँ लक्ष्मण ने अपनी वीरता, कर्तव्यपरायणता, शौर्य के बल पर गठीले शरीर, गजब की फुर्ती वाले मेद जाति के लुटेरों से नाडोल नगर की सुरक्षा की। और जनता का दिल जीता। उस काल नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य व्यापारिक नगर था। व्यापार के चलते नगर की संपन्नता लुटेरों व चोरों के आकर्षण का मुख्य केंद्र थी। पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने नाडोल नगर को धन-धान्य से पाट डाला था। हालाँकि नगर सुरक्षा के लिहाज से एक मजबूत प्राचीर से घिरा था, पर सामंतसिंह चावड़ा जो गुजरातियों का सामंत था। अयोग्य और विलासी शासक था। अतः जनता में उसके प्रति रोष था, जो लक्ष्मण के लिए वरदान स्वरूप काम आया।
चौहान वंश की कुलदेवी शुरू से ही शाकम्भरी माता रही है, हालाँकि कब से है का कोई ब्यौरा नहीं मिलता। लेकिन चौहान राजवंश की स्थापना से ही शाकम्भरी को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता रहा है। चौहान वंश का राज्य शाकम्भर (सांभर) में स्थापित हुआ तब से ही चौहानों ने माँ आद्ध्यशक्ति को शाकम्भरी के रूप में शक्तिरूपा की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी।
माँ आशापुरा मंदिर तथा नाडोल राजवंश पुस्तक के लेखक डॉ. विन्ध्यराज चौहान के अनुसार- ज्ञात इतिहास के सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में नगर (ठी.उनियारा) जनपद से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति सवार्धिक प्राचीन है। 1945 में अंग्रेज पुरातत्वशास्त्री कार्लाइल ने नगर के टीलों का सर्वेक्षण किया। 1949 में श्रीकृष्णदेव के निर्देशन में खनन किया गया तो महिषासुरमर्दिनी के कई फलक भी प्राप्त हुए जो आमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।
नाडोल में भी राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता के रूप में ही आराधना की थी, लेकिन माँ के आशीर्वाद स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित किया। जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम “आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता के नाम से कुलदेवी मानने लगे।
भारतवर्ष के जैन धर्म के सुदृढ. स्तम्भ तथा उद्योगजगत के मेरुदंड भण्डारी जो मूलतः चौहान राजवंश की ही शाखा है, भी माँ आशापुरा को कुलदेवी के रूप में मानते है। गुजरात के जड.ेचा भी माँ आशापुरा की कुलदेवी के रूप में ही पूजा अर्चना करते है।
माँ आशपुरा के दर्शन लाभ हेतु अजमेर-अहमदाबाद रेल मार्ग पर स्थित रानी रेल स्टेशन पर उतरकर बस व टैक्सी के माध्यम से नाडोल जाया जा सकता है। मंदिर में पशुबलि निषेध है।
सुन्धा माता
गोत्र - 16 आगलेचा
सुंधा माता का मन्दिर राजस्थान में जालौर जिले की
भीनमाल तहसील में सुन्धा पर्वत के पर्वतांचल में स्थित है।
सुन्धामाता का प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर जालौर जिले की भीनमाल तहसील में सुन्धा पर्वत के पर्वतांचल में स्थित है। सुन्धामाता का प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर जालौर जिले की भीनमाल तहसील में जसवंतपुरा से 12 कि.मी. दर दंतालावास गाँव के समीप लगभग 1220 मीटर की ऊँचाई का एक विशाल पर्वत शिखर, जो की सुन्धा पर्वत कहलाता है, के पर्वतांचल में एक प्राचीन गुफा के भीतर स्थित है । पुराणों में तथा इस पर्वत पर विद्यमान चौहान राजा चाचिगदेव के विक्रम संवत् 1319 (1262 ई.) के शिलालेख में इस पर्वत को सुगन्धगिरी कहा गया है । इस पर्वत पर स्थित चामुण्डामाता ही पर्वतशिखर के नाम से लोक में सुगन्धामाता के नाम से विख्यात है ।
पहाड़ काटकर बनवाया गया सुंधा माता का मंदिर
ज्ञात इतिहास के अनुसार जालौर के प्रतापी चौहान राजा चाचिगदेव ने सुन्धा पहाड़ पर चामुण्डा का मन्दिर बनवाया । जसवंतपुरा के पहाड़ों को सुन्धा पहाड़ कहा जाता है । जिस पर पहाड़ काटकर यह मन्दिर बनवाया गया है । नैणसी ने मन्दिर निर्माण का समय विक्रम संवत् 1312 लिखा है । अतः हो सकता है कि चाचिगदेव ने कुँवरपदे में या युवराज अवस्था में देवी के इस मन्दिर का निर्माण कराया हो । यहाँ से प्राप्त चाचिगदेव के शासनकाल के सुन्धा पर्वत पर शिलालेख वैशाख मास विक्रम संवत् 1319 (1262 ई.) से इस संबंध में प्रामाणीक जानकारी मिलती है ।
शिलालेख में चाचिगदेव को अतुल पराक्रमी, दधीचि के समान दानी, सुन्दर व्यक्तित्व का स्वामी बताया गया है, जिसने मेरुतुल्य तथा प्राकृतिक वनवैभव सम्पन्न सुगंधाद्रि पर्वत पर चामुण्डा अघटेश्वरी (सुन्धामाता ) के मन्दिर व सभामण्डप का निर्माण कराया । यहाँ किन्नर मिथुन विचरण करते थे और मन्दिर का सभामण्डप सदैव मयूर ध्वनि और पक्षियों के कलरव से गुंजित रहता था ।
यहाँ गिरा था देवी सती का सिर
लोकमान्यता में सुन्धामाता को अघटेश्वरी भी कहा जाता है । अघटेश्वरी से तात्पर्य वह धड़रहित देवी है, जिसका केवल सर पूजा जाता है । पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा दक्ष के यज्ञ के विध्वंश के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर ताण्डव नृत्य किया था तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े -टुकड़े कर छिन्न-भिन्न कर दिया । उसके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहाँ गिरे, वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गये । सम्भवतः इस सुन्धा पर्वत पर सती का सर गिरा जिससे वे अघटेश्वरी कहलायी ।
देवी के इस मन्दिर परिसर में एक प्राचीन शिवलिंग भी विद्यमान है, जो भूर्भुवः सवेश्वर महादेव (भुरेश्वर महादेव) के रूप में विख्यात है । सुन्धामाता के विषय में एक जनश्रुति है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुण्डा अपने सात शक्तियों (सप्तमातृकाओं) सहित यहाँ पर अवतरित हुई , जिसकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता) प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं ।
सुन्धामाता का पावन तीर्थस्थल सड़क मार्ग से जुड़ा है । इसकी सीमा पर विशाल प्रवेश द्वार है, जहाँ से देवी मन्दिर को जाने वाले पर्वतीय मार्ग को पक्की सीढ़ियाँ बनाकर सुगम बनाया गया है । पहाड़ी से गिरता झरना अनुठे प्राकृतिक दृश्य का सृजन कर तीर्थ यात्रियों में उत्साह का संचार करता है ।
दो खंडों में विभाजित है मन्दिर
सुन्धामाता मन्दिर परिसर के दो खण्ड हैं – प्रथम या अग्रिम खण्ड में भूभुर्वः स्वेश्वर महादेव का शिव मन्दिर है, जहाँ उक्त शिवलिंग स्थापित है । इसके आगे दूसरे खण्ड में सुन्धामाता का मन्दिर है जिसमे प्रवेश हेतु विशाल एवं कलात्मक तोरणद्वार बना है । सीढियाँ चढ़ने पर आगे भव्य सभामण्डप है जो विशालकाय स्तम्भों पर टिका है । मन्दिर के प्रथम और मुख्य गुफा कक्ष में सुन्धामाता या चामुण्डामाता की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित है । हाथ में खड्ग और त्रिशूल धारण किये महिषासुर – मर्दिनी स्वरूप की यह प्रतिमा बहुत सजीव लगती है । उनके पार्श्व में ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही,नारसिंही, ब्रह्माणी, शाम्भवी आदि मातृ शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं । इनके अलावा वहाँ विद्यमान देव प्रतिमाओं में ब्रह्मा, शिव-पार्वती, स्थानक विष्णु, शेषशायी आदि प्रमुख हैं ।
इस देवी मन्दिर में वीणाधर शिव की एक दुर्लभ देव प्रतिमा है, जिसमे शिव ऐसे महिष के ऊपर विराजमान है, जिसका मुँह मानवाकार और सींग महिष जैसे हैं । ऊपर के दोनों हाथों में त्रिशूल, सर्प व निचले दोनों हाथों में वीणा धारण किये जटाधारी शिवमस्तक के चारों ओर प्रभामण्डल पर मुखमुद्रा अत्यन्त सौम्य, गले में मणिमाला धारण किये शिव की यह प्रतिमा एक दुर्लभ और उत्कृष्ट कलाकृति है । देवी मन्दिर के सभामण्डप के बहार संगमरमर की बानी कुछ अन्य देव प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठापित हैं जो बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के आस-पास की कला की परिचायक हैं । इसमें गंगा-यमुना की प्रतिमाएँ बहुत सजीव और कलात्मक हैं ।
राजा चाचिगदेव का शिलालेख
वहाँ पास में ही इस देवी मन्दिर के निर्माता चौहान राजा चाचिगदेव का विक्रम संवत् 1319 का शिलालेख दो काले रंग के पत्थरों पर उत्कीर्ण है । सुन्धा पर्वत शिलालेख के नाम से प्रसिद्ध यह शिलालेख नाडोल और जालौर के चौहान शासकों की उपलब्धियों की जानकारी देने वाला महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य है। सुन्धामाता का बहुत माहात्म्य है । वर्ष में तीन बार वैशाख, भाद्रपद एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में यहाँ मेला भरता है, जिसमे दूर-दूर से श्रद्धालु देवी के दर्शन एवं वांछित फल पाने यहाँ आते हैं ।
बाण माता, बायणमाता, ब्राह्मणी माता
गोत्र - 17 गेहलोत, 18 खण्डाला
बाण माता का मन्दिर राजस्थान में चित्तोड़गढ़ जिले के चित्तोड़ फोर्ट में स्थित है।
यह तो सर्वविदित है कि मेवाड़ के राजकुल एवं इस कुल से पृथक हुई सभी शाखाओं की कुलदेवी बायण माता है अतः मेवाड़ में इसकी प्रतिष्ठा एवं महत्त्व स्वाभाविक है ।
राजकुल की कुलदेवी बायणमाता सिद्धपुर के नागर ब्राह्मण विजयादित्य के वंशजों के पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रही है । जब-जब मेवाड़ की राजधानी कुछ समय के लिए स्थानान्तरित हुई वहीं यह परिवार कुलदेवी के साथ महाराणा की सेवा में उपस्थित रहा । नागदा, आहाड़, चित्तौड़ एवं उदयपुर इनमे मुख्य है ।
चैती एवं आसोजी नवरात्री में भट्ट जी के यहाँ से कुलदेवी को महलों में ले जाया जाता है । उस वक्त लवाजमें में ढ़ोल, म्यानों बिछात अबोगत (नई) जवान 10, हिन्दू हलालदार 4, छड़ीदार 1, चपरासी 1 रहता है ।
महलों में अमर महल (रंगभवन का भण्डार) की चौपड में जिसका आँगन मिट्टी का लिपा हुआ कच्चा है, स्थापना की जाती है । इस अवधि में कालिका, गणेश, भैरव भी साथ विराजते हैं । जवारों के बिच बायण माता के रजत विग्रह को रखा जाता है । इनमें सभी प्रकार के पारम्परिक लवाजमें में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र शस्त्र एवं मुख्य चिन्न यहाँ रखे जाते है । अखण्ड ज्योति जलती है । विधि विधान से पूजा पाठ होते हैं । बाहर के दालान में पण्डित दुर्गासप्तशती के पाठ करते हैं । महाराणा इस अवधि में तीन-चार बार दर्शन हेतु पधारते थे । अष्टमी के दिन दशांश हवन संपन्न होता है । पूर्व में इसी दिन चौक में बकरे की बलि (कालिका के लिए) एवं बाहर जनानी ड्यौढ़ी के दरवाजे में महिष की बलि दी जाती थी , जो अब बंद हो गयी है ,उसके बदले में श्रीफल से बलि कार्य संपन्न किया जाता है । अष्टमी के दिन हवन की पूर्णाहुति के समय महाराणा उपस्थित रहते थे । तीन तोपों की सलामी दी जाती थी । नवमी के दिन उसी लवाजमें के साथ बायण माता भट्ट परिवार के निवास स्थान पर पहुँचा दी जाती थी ।
बायण माता के इतिहास की जानकारी लेने से पूर्व यह प्रासंगिक होगा कि कुलदेवी का नाम बायणमाता क्यों पड़ा ? जैसे राठौड़ों की कुलदेवी नागणेचा नागाणा गांव में स्थापित होने के कारण जानी जाती है । वैसे बायणमाता का किसी स्थान विशेष से सम्बन्ध जोड़ना प्रमाणित नहीं है, किन्तु यह सत्य है कि इस राजकुल की कर्मस्थाली गुर्जर देश (गुजरात) रही है ।
गुजरात में होकर नर्मदा नदी समुद्र में मिलती है । यह नदी शिवलिंग की प्राप्ति का मुख्य स्थान है । इस पवित्र नदी से प्राप्त लिंग बाणलिंग (नर्मदेश्वर) कहलाते है । संभव है बाणेश्वर से शक्ति स्वरूपा बायणमाता का नामकरण हुआ हो । यह स्मरणीय है कि महाराणा भीमसिंह ने इन्हीं कुलदेवी बायणमाता के प्रेरणा से अपने स्वपूजित शिवलिंग को बाणनाथजी का नाम दिया हो ।
बाणलिंग और बाणमाता नाम में महान् सार्थकता समाविष्ट है । सामान्यतया शास्त्रों में शिवलिंग को अर्पित पत्र, पुष्प, फल, नैवैद्य का निर्माल्य अग्राह्य है, अर्थात उन्हें चण्ड (शिव का गण ) को अर्पित कर देना चाहिए या कुएं जलाशय में समर्पित कर देना चाहिए । शिवपुराण में शिवार्पित वस्तुओं का जो चंडेश्वर भाग है ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध है । बाणमाता कब और कैसे इस राजकुल की कुलदेवी स्थापित हुई और नागदा ब्राह्मण परिवार को इसकी सेवा का अधिकार हुआ, इसके लिए सम्बन्धित सूत्रों से प्राप्त जानकारी का अध्ययन अपेक्षित है ।
अमरकाव्यम् ग्रंथ के अनुसार राजा शिलादित्य की पत्नी का नाम कमलावती था । शत्रुओं द्वारा राज्य और नगर घेर लिए जाने पर कमलावती और पुत्रवधु मेवाड़ में चली आई । शिलादित्य की पुत्रवधु उस समय गर्भवती थी, उसने पुत्र को जन्म दिया और सूर्य पूजा के बाद अपने नवजात पुत्र को लखमावती नामक ब्राह्मणी को सौंप कर वह सती हो गयी । लखमावती के पति का नाम विजयादित्य था । उसने शिलादित्य के पौत्र का नाम केशवादित्य रखा । विजयादित्य का गौत्र वैजवापाय उसके पालित क्षत्रिय बालक का ही गौत्र कहलाया । इस ब्राह्मण परिवार ने अपने पुत्र की भाँति केशवादित्य का पालन किया, इसलिए वह ब्राह्मण और क्षत्रिय कर्मों से उक्त था । चित्तौड़, के समीप आनन्दीपुर (वर्तमान अरणोद) में केशवादित्य ने निवास किया एवं अपना राज्य स्थापित किया ।
केशवादित्य के पुत्र नागादित्य ने नागद्रहा नागदा नगर बसाया । रावल राणाजी री बात में इसकी राजधानी तिलपुर पाटन कही गई है । शत्रु के दबाव से बालक केशवादित्य को कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में रख दिया, उनकी कृपा से बालक और रक्षक नागदा सुरक्षित पहुंच गये । गुजरात का राजा समरसी सोलंकी ने केशवादित्य को अपना वारिस बनाना चाहा, परन्तु यह संभव नहीं हुआ । विजयादित्य लखमावती वडनगरा नागर ब्राह्मण के साथ मेवाड़ की तरफ आ गए । नागदा मुख्य केन्द्र बन गया ।एतिहासिक प्रमाणों के अभाव में उपरोक्त कथनों की पुष्टि नहीं होती । राजा केशवादित्य एतिहासिक सिद्ध नहीं होते । डॉ. ओझा ने गुहिल से लेकर बापा तक की वंशावली में आठ राजाओं के नाम लिए है , इनमे केशवादित्य का नाम नहीं है । शिलादित्य का समय विक्रम संवत 703 शिलालेखों से प्रमाणित है । मेवाड़ राजकुल का गौत्र, प्रवर, कुलदेवी का नामकरण इसी समय के आस पास होना चाहिए ।
विजयादित्य एवं लखमावती के परिवार को 1300 वर्ष की मान्यता, अनेक गावों की जागीर एवं कुलगुरु का सम्मान संदिग्ध नहीं हो सकता ।
बाणमाता विभिन्न स्थानों पर राजधानी परिवर्तन के साथ विचरण करती रही है । चित्तौड़ दुर्ग में बाणमाता का मन्दिर (अन्नपूर्णा के समय ) है । इसी प्रकार तलवाड़ा में भी बाणमाता का मन्दिर है । इसके आलावा भी कुछ अन्य स्थानों पर प्रतीकात्मक मूर्तियां एवं मन्दिर है , परन्तु मेवाड़ का राजकुल इसी नागदा परिवार द्वारा सेवी विगरह को बायण जी के स्वरूप को सदीप से अंगीकृत किये हुए है । यह क्रम अखण्ड रूप से जारी है ।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ का गुहिल राजवंश अपने शौर्य पराक्रम कर्तव्यनिष्ठा, और धर्म पर अटल रहने वाले 36 राजवंशों में से एक है । गुहिल के वंश क्रम में भोज, महेंद्रनाग, शीलादित्य, अपराजित महेंद्र द्वितीय एवं कालाभोज हुआ । कालाभोज बापा रावल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह माँ बायण का अन्नयः भक्त था ।
बायणमाता गुहिल राजवंश ही नहीं इस राजवंश से निकली दूसरी शाखा सिसोदियां और उनकी उपशाखाओं की भी कुलदेवी रही है । दलपति विजय कृत खुम्माण रसों में माँ बायण की बापा रावल पर विशेष कृपा का उल्लेख मिलता है
भाव सहित अर्चना करने पर भगवती बायणमाता भय से मुक्ति दिलाती है । वह सिंह की पीठ पर सवार होकर विचरण करती है । माता बायण मुझ पर दया करती है । कालिकादेवी काली होने से प्रकाशरहित होती है, पर उसके शरीर से ज्योति (प्रकाश) झिल मिलता रहता है । वह अखण्ड (शाश्वत) मित्र है, अग्नि रूप है,शत्रुओं का सर्वनाश करती है । हंसती खेलती, किलकारी करती हुई गहलोत वंश की वृद्धि (उन्नति) करती है । प्रसन्न होने पर यह माता सदा सभी कार्यों को सानन्द सम्पन्न करती है ।
भाले, तलवार, धनुष बाण, तरकस प्रदान किये । कमठ (कछुवे की पीठ से बनी) ढाल कमा और कटार जो शत्रु समूह को काटती है, बापा को वीर योद्धा जान कर देवी ने अपने हाथों से धारण कराया । उसकी बाह पकड़कर शक्ति दान करते हुए माता ने उसका मोतियों से वर्धापन किया । अर्थात उसको राजा बनाया अपने हाथ से तिलक लगाकर माँ बायण ने अपने पुत्र को बड़ा (महान) बनाया और शक्ति के द्वारा दिया हुआ भूमि का भार सामंत बापा ने भुजा पर धारण किया ।
बाणमाता के मन्दिर केलवाड़ा अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँची चोटी पर किया गया था । मन्दिर का क्षेत्रफल काफी था तथा इसके चारों तरफ सुदृढ़ परकोटा था जहां सेनाएं रहा करती थी । 1443 ई. में जब सुलतान महमूदशाह खिलजी (मालवा) ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तब वह सारंगपुर होता हुआ केलवाड़ा की ओर बढ़ा वहां पहुंचकर उसने कई धार्मिक स्थानों को नष्ट भ्रष्ट किया । सुलतान की सेना का विरोध करने वाला दीप सिंह अपने कई वीर साथियों सहित काम आया अनन्तर मुस्लिम सेना ने बाणमाता के मन्दिर को लुटा, मन्दिर में लकड़ियां भरकर उसमे आग लगा दी और अग्नि से तप्त मूर्तियों पर ठण्डा पानी डालकर उसे नष्ट किया गया । कालान्तर में वर्तमान मन्दिर का पुनः निर्माण कराया गया तथा बायणमाता की नवीन मूर्ति गुजरात से लाकर स्थापित की गयी ।
सिसोद वंशावली एवं टोकरा बड़वा की पोथी में यह उल्लेख है कि गढ़ मंडली राणा कुंवर लक्ष्मणसिंह द्वारका की यात्रा कर गये मार्ग में पाटण (राजधानी) में ठहरे वहाँ कच्छ के एक विशाल सींगों वाले भैंसे का बलिदान किया । इस सम्बन्ध में यह छन्द द्रष्टव्य है ।
इससे प्रसन्न होकर भटियाणी रानी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया । सोलंकियों की कुलदेवी बायण की पेटी एवं गहनों की पेटी उन्हें सौंप दी लक्ष्मणसिंह ने बायणजी का मन्दिर बनवाकर केलवाड़ा में स्थापना की ।
उपरोक्त कथन में तिथि क्रम में त्रुटियां हैं जिन्हे इतिहास की कसौटी पर सिद्ध करना संभव नहीं है, कुलदेवी की इसी प्रतिमा एवं मन्दिर को मेवाड़ के राजकुल से विशेष महत्त्व दिया हो इसके प्रमाण नहीं मिलते, सम्भवत बाणमाता को कुलदेवी मानने के बाद इस वंश के शाखा प्रमुखों में मन्दिर बनवाये हो जिनमे से केलवाड़ा का मन्दिर भी एक है ।
भट्ट परिवार बायणजी के पुश्तैनी पुजारी
बाणमाता के प्रसंग में यह लिखा जा चुका है कि राज केशवादित्य का लालन-पालन बडनगरा भट्ट ब्राह्मण विजयादित्य एवं लखमावती ने किया था । इसी परिवार ने गौत्र, प्रवर, शाखा यज्ञोपवित देकर केशवादित्य को ब्राह्मण संस्कार प्रदान किया जो आज तक उसी रूप में विध्यमान है । गुर्जर देश से आने के बाद दीर्घ अवधि तक यह परिवार नागदा में रहा ।
कालभोज बापा नागदा में नरेश्वरजी भट्ट की गायें चराते थे जिनमे से एक भगवान एकलिंग और हरितराशि को दुग्ध प्रदान करती थी । इस प्रसंग में बापा पर दुग्ध चोरी का मिथ्या, आरोप लगा था । उपरोक्त तथ्यों को एतिहासिक स्तर पर प्रमाणित करने के साक्ष्य मौजूद नहीं है, परन्तु जिस काल से साक्ष्य मिलते हैं और जो जागीर एवं सम्मान इस परिवार को मिला, वह पूर्ववर्ती सेवाओं को ध्यान में रख कर ही दिया गया प्रतीत होता है । यह अवश्य आश्चर्यजनक है कि महाराणा कुम्भा जो हर दृष्टि से मेवाड़ का यशस्वी शासक था, उसके काल का भी इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।
सम्भवतः विजयादित्य के बाद गोपाल भट्ट इस परिवार में प्रभावशाली व्यक्ति हुआ, जो महाराणा रायमल का समकालीन था । रायमल ने गद्दी पर बैठते ही संवत् 1530 में 12 गांव का पट्टा चित्तौड़ क्षेत्र में प्रदान किया । महाराणा रायमल ने गोपाल भट्ट से गुरु दीक्षा ली एवं संवत् 1543 में गांव बोदियाणा (गढ़ की तलहटी) ताम्रपत्र प्रदान किया ।
इस प्रकार गोपाल भट्ट की दो पुत्रियों को पीपलवास (नाथद्वारा) और पहाड़ा (गिर्वा) गांव प्रदान किये । इसी प्रकार इसी महाराणा ने प्रहाणा व थुर गांव भी दिये, जिनका उल्लेख एकलिंग मन्दिर के दक्षिण द्वारा प्रशस्ति में है । स्पष्ट है महाराणा रायमल इस परिवार पर अत्यधिक प्रसन्न कृपालु थे । इस कृपा का कारण उस काल में गोपाल भट्ट द्वारा की गई सेवायें थी अथवा पूर्व काल में की गयी सेवाओं को समग्र रूप में पुरस्कृत करना था, नहीं कहा जा सकता ।इसके बाद महाराणा जगत सिंह प्रथम एवं संग्राम सिंह द्वितीय के काल में दिए गये भूमि दान के प्रमाण है ।
कालाजी गोराजी के समीप गणेश की प्रभावी प्रतिमा सुन्दर विनायक जी इस परिवाद द्वारा स्थापित विग्रह है । इसकी विशेषता यह कि विग्रह की सूंड परम्परा से हटकर दाहिनी ओर है । इस श्री विग्रह के हृदय पर लक्ष्मी का चित्र है । इस विग्रह का कई महाराणाओं को विशेष इष्ट था, जिनमे महाराणा स्वरूपसिंह मुख्य थे । गणेश चतुर्थी को सामान्यतया सभी महाराणा यहां दर्शनार्थ पधारते थे ।
वर्तमान में यह परिवार राजमहल के निचे भट्टियानी चोहट्टा में निवास करता है । वहीं बाणमाता की पूजा अर्चना भी नियमित होती है । पूर्व में यह कार्य जागीर पेटे होता था । वर्तमान में माताजी की सेवा पूजा की व्यवस्था महलों की ओर से होती है । वस्तुतः मेवाड़ राजकुल के साथ इस भट्ट परिवार का सान्निध्य एवं सम्बन्ध मैत्रा वरुण जैसा रहा है । जो अत्यन्त वन्दनीय है ।
क्षेमाचर्या क्षेमंकारी देवी जिसे स्थानीय भाषाओं में क्षेमज, खीमज, खींवज आदि नामों से भी पुकारा व जाना जाता है। इस देवी का प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर राजस्थान के भीनमाल कस्बे से लगभग तीन किलोमीटर भीनमाल खारा मार्ग पर स्थित एक डेढ़ सौ फुट ऊँची पहाड़ी की शीर्ष छोटी पर बना हुआ है। मंदिर तक पहुँचने हेतु पक्की सीढियाँ बनी हुई है। भीनमाल की इस देवी को आदि देवी के नाम से भी जाना जाता है। भीनमाल के अतिरिक्त भी इस देवी के कई स्थानों पर प्राचीन मंदिर बने है जिनमें नागौर जिले में डीडवाना से 33 किलोमीटर दूर कठौती गांव में, कोटा बूंदी रेल्वे स्टेशन के नजदीक इंद्रगढ़ में व सिरोही जालोर सीमा पर बसंतपुर नामक जगह पर जोधपुर के पास ओसियां आदि प्रसिद्ध है। सोलंकी राजपूत राजवंश इस देवी की अपनी कुलदेवी के रूप में उपासना करता है|
देवी उपासना करने वाले भक्तों को दृढविश्वास है कि खीमज माता की उपासना करने से माता जल, अग्नि, जंगली जानवरों, शत्रु, भूत-प्रेत आदि से रक्षा करती है और इन कारणों से होने वाले भय का निवारण करती है। इसी तरह के शुभ फल देने के चलते भक्तगण देवी माँ को शंभुकरी भी कहते है। दुर्गा सप्तशती के एक श्लोक अनुसार-“पन्थानाम सुपथारू रक्षेन्मार्ग श्रेमकरी” अर्थात् मार्गों की रक्षा कर पथ को सुपथ बनाने वाली देवी क्षेमकरी देवी दुर्गा का ही अवतार है।
जनश्रुतियों के अनुसार किसी समय उस क्षेत्र में उत्तमौजा नामक एक दैत्य रहता था। जो रात्री के समय बड़ा आतंक मचाता था। राहगीरों को लूटने, मारने के साथ ही वह स्थानीय निवासियों के पशुओं को मार डालता, जलाशयों में मरे हुए मवेशी डालकर पानी दूषित कर देता, पेड़ पौधों को उखाड़ फैंकता, उसके आतंक से क्षेत्रवासी आतंकित थे। उससे मुक्ति पाने हेतु क्षेत्र के निवासी ब्राह्मणों के साथ ऋषि गौतम के आश्रम में सहायता हेतु पहुंचे और उस दैत्य के आतंक से बचाने हेतु ऋषि गौतम से याचना की। ऋषि ने उनकी याचना, प्रार्थना पर सावित्री मंत्र से अग्नि प्रज्ज्वलित की, जिसमें से देवी क्षेमकरी प्रकट हुई। ऋषि गौतम की प्रार्थना पर देवी ने क्षेत्रवासियों को उस दैत्य के आतंक से मुक्ति दिलाने हेतु पहाड़ को उखाड़कर उस दैत्य उत्तमौजा के ऊपर रख दिया। कहा जाता है कि उस दैत्य को वरदान मिला हुआ था वह कि किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा। अतः देवी ने उसे पहाड़ के नीचे दबा दिया। लेकिन क्षेत्रवासी इतने से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें दैत्य की पहाड़ के नीचे से निकल आने आशंका थी, सो क्षेत्रवासियों ने देवी से प्रार्थना की कि वह उस पर्वत पर बैठ जाये जहाँ वर्तमान में देवी का मंदिर बना हुआ है तथा उस पहाड़ी के नीचे नीचे दैत्य दबा हुआ है।
देवी की प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर वर्तमान में जो प्रतिमा लगी है वह 1935 में स्थापित की गई है, जो चार भुजाओं से युक्त है। इन भुजाओं में अमर ज्योति, चक्र, त्रिशूल तथा खांडा धारण किया हुआ है। मंदिर के सामने व पीछे विश्राम शाला बनी हुई है। मंदिर में नगाड़े रखे होने के साथ भारी घंटा लगा है। मंदिर का प्रवेश द्वार मध्यकालीन वास्तुकला से सुसज्जित भव्य व सुन्दर दिखाई देता है। मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा के दार्इं और काला भैरव व गणेश जी तथा बाईं तरफ गोरा भैरूं और अम्बाजी की प्रतिमाएं स्थापित है। आसन पीठ के बीच में सूर्य भगवान विराजित है।
नागौर जिले के डीडवाना से 33 कि.मी. की दूरी पर कठौती गॉव में माता खीमज का एक मंदिर और बना है। यह मंदिर भी एक ऊँचे टीले पर निर्मित है ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में यहा मंदिर था जो कालांतर में भूमिगत हो गया। वर्तमान मंदिर में माता की मूर्ति के स्तम्भ’ के रूप से मालुम चलता है कि यह मंदिर सन् 935 वर्ष पूर्व निर्मित हुआ था। मंदिर में स्तंभ उत्तकीर्ण माता की मूर्ति चतुर्भुज है। दाहिने हाथ में त्रिशूल एवं खड़ग है, तथा बायें हाथ में कमल एवं मुग्दर है, मूर्ति के पीछे पंचमुखी सर्प का छत्र है तथा त्रिशूल है।
क्षेंमकरी माता का एक मंदिर इंद्रगढ (कोटा-बूंदी ) स्टेशन से 5 मील की दूरी पर भी बना है। यहां पर माता का विशाल मेला लगता है। क्षेंमकरी माता का अन्य मंदिर बसंतपुर के पास पहाडी पर है, बसंतपुर एक प्राचीन स्थान है, जिसका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। सिरोही, जालोर और मेवाड की सीमा पर स्थित यह कस्बा पर्वत मालाओ से आवृत्त है। इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 682 में हुआ था। इस मंदिर का जीर्णोद्वार सिरोही के देवड़ा शासकों द्वारा करवाया गया था। एक मंदिर भीलवाड़ा जिला के राजसमंद में भी है। राजस्थान से बाहर गुजरात के रूपनगर में भी माता का मंदिर होने की जानकारी मिली है।
Other Kuladevi Information Site under Construction..........................................................
संक्षिप्त इतिहास से में आपको रूबरू करवा रहा हूँ हालाँकि यह इतिहास वेद् वर्णित हैं फिर भी अगर किसी भी प्रकार की त्रुटि हो तो में क्षमा प्राथी हूँ।
49 comments:
धन्यवाद सा
धन्यवाद सा
Lacheta ke kuldevta
गाजण माता लछेटा की कुल देवी
18 gotra he total baki ki kha he
बह्मणी माता गोदा कि कुलदेवी
बह्मणी माता गोदा कि कुलदेवी
Sobetra ke kuldevi Jones he kameent
Senacha ki kuldevi
खीमज माता सोलंकी
Sencha ki kuldevi kon si devi hi sa
Yha kuldevi ke bare me jyadatar information wrong hai please phale samaj ka itihas page or anhy tathy se Shi jankari leke pig information de Jese aaglecha o ki kuldevi Sundha mata nhi hai unki kuldevi aasapura ji hai kyki vo khana ji olecha ke vansaj hi Jo ki songara chuan the
Jai mata kshem kalyani.
Panwar goutra ki kuldevi
Kalika ma(Dhaar-MP) hai
Jay ma khimaj mataji kul devi ma
Mandir Kaha par hain
Vinod Rov
Me bhi hindu solanki rajput hu lekin meri kuldevi ambaji mata he
Sancha kuldevi name
Kag ki kuldevi
sirvi samaj ke sencha gotr ka kuldevi konsa hai batye
Ok now i am to bhinmal khimaj mata mandir
Barfa ki kuldevi bataya or history bataya
ठो कुलबी आंजना पटेल री कुलदेवी गाजनमाता है
सही है पहले समाज के इतिहास को सही तरीके से समाज में फेलावो
सीरवी में सिंदडा गोत्र के लोग ठाकुरजी (कृष्ण) की पूजा करते है और आराध्य देवी के रूप में आई माता जी की पूजा करते है तो फिर कुल देवी कोनासी हुई,
आपसे निवेदन है की समाज के इतिहास को सही तरीके से फैलाए खास कर दीवान साहब से निवेदन है की वे सीरवी के धर्म गुरु है तो अपने वैवाहिक संबंध भी सीरवी समाज से ही करे 🙏
Chandel gotta khatik samaj bhi mewad raajkul m says h kya
Permaro ke kuldevta kon h
परिहारों की कुल देवी कोंन है
Khimaj mathaji ka din
Somtara ki kuldevi konsi hai or kaha pr hai
Saincha,sencha ki kuldevi kon he bhai
Gajan mata dharmdhari
Parihariya ki kuldevi kaha hai
Lot jati ki kuldevi kon h
Kis Van's me mate h
Lot Gotam rajput h
सेणचा गोत्र की कुलदेवि कोंनसी है सा कृपया करके साझा करे सा,,
Neem Solanki ki kuldevi kaun hai, please agar aap ko pata ho to bataye 🙏
Parihariya ki kuldevi कोंनसी है सा कृपया करके साझा करे सा,,
कम्मा सैनी,माली गोत्र की कुलदेवी बताए
खिची की कुलदेवी कौनसी है
Adhaar devi/ARBUDA mata
राव भाट की चोपड़ी अनुसार सींदरा गोत्र की कुलदेवी सुन्दामाता हैं
भोई समाज मोरे ची कुलस्वामिनी कुठे आहे
Sencha Gotar Ki Kuldevi Khon Hi
सेणचा की कुलदेवी कौन है
Sencha ki kuldevi kon si devi hi sa
सेणचा गोत्र की कुलदेवि कोंनसी है सा कृपया करके साझा करे सा,,
Aaglechak8 kuldevi konsi hi
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